40 साल बाद भी गूंजती है ‘आखिर क्यों’, स्मिता पाटिल की वो फिल्म जिसने बदल दी सोच

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Published On: 7 October 2025

भारतीय सिनेमा के इतिहास में कुछ फिल्में ऐसी होती हैं जो सिर्फ मनोरंजन तक सीमित नहीं रहतीं, बल्कि समाज (स्मिता पाटिल) की सोच को झकझोर देती हैं। ऐसी ही एक फिल्म थी ‘आखिर क्यों?’, जो 7 अक्टूबर 1985 को रिलीज हुई थी। उस दौर में जब फिल्मों की कहानियां ज़्यादातर पुरुष किरदारों के इर्द-गिर्द घूमती थीं, उस वक्त इस फिल्म ने महिला की भावनाओं, संघर्ष और आत्मसम्मान को केंद्र में रखकर नई परिभाषा दी।

फिल्म में लीड रोल निभाया था स्मिता पाटिल ने, जो उस दौर की सबसे सशक्त अभिनेत्रियों में से एक थीं। उनके लिए अभिनय सिर्फ ग्लैमर नहीं, बल्कि समाज की सच्चाइयों को दिखाने का जरिया था। ‘आखिर क्यों?’ के जरिए उन्होंने महिला सशक्तिकरण को बिना शोर मचाए, बेहद सादगी से दर्शकों के दिलों तक पहुंचाया।

स्मिता पाटिल

फिल्म में स्मिता पाटिल ने निशा शर्मा का किरदार निभाया एक ऐसी महिला जो अपनी शादीशुदा जिंदगी में टूटती है, लेकिन हार नहीं मानती। निशा का जीवन विरोधाभासों से भरा है: वह रोती है, सहती है, लेकिन आखिर में अपने आत्मसम्मान के लिए खड़ी हो जाती है। उसका संघर्ष हर उस औरत की आवाज़ था जो रिश्तों में चुप रहकर भी भीतर से मजबूत बनी रहती है।

निशा का किरदार न तो ऊंची आवाज़ में अपने अधिकार मांगता है, न ही किसी आंदोलन का हिस्सा बनता है। बल्कि वह अपनी सादगी, स्पष्टता और आत्मविश्वास से यह साबित करता है कि फेमिनिज्म केवल विद्रोह नहीं, बल्कि आत्मस्वीकार का नाम है। यही बात इस फिल्म को बाकी महिला प्रधान फिल्मों से अलग बनाती है।

अमिताभ और राजेश खन्ना संग भी किया था काम

‘आखिर क्यों?’ से पहले और बाद में स्मिता पाटिल ने हर बड़े अभिनेता के साथ काम किया। अमिताभ बच्चन के साथ ‘नमक हलाल, और राजेश खन्ना के साथ ‘नजराना’ जैसी फिल्मों में उन्होंने अपनी बहुमुखी प्रतिभा दिखाई। लेकिन ‘आखिर क्यों?’ उनकी उन फिल्मों में से एक थी, जिसने यह साबित किया कि वह सिर्फ समानांतर सिनेमा की नहीं, बल्कि मेनस्ट्रीम बॉलीवुड की भी आत्मा बन सकती हैं।

एक ऐसी फिल्म जो आज भी प्रासंगिक

‘आखिर क्यों?’ सिर्फ एक ड्रामा नहीं था, बल्कि उस दौर में महिलाओं की स्थिति पर एक गहरा प्रश्न था। आज, 40 साल बाद भी, जब महिलाएं अपने हक और पहचान की बात करती हैं, तो निशा का किरदार उतना ही जीवंत महसूस होता है।

यह फिल्म दिखाती है कि शांति, सादगी और आत्मसम्मान भी संघर्ष के हथियार हो सकते हैं। स्मिता पाटिल का यह रोल आज भी भारतीय सिनेमा की सबसे यादगार और प्रेरणादायक महिला भूमिकाओं में गिना जाता है।

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