अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप एक बार फिर नोबेल शांति पुरस्कार की दौड़ में पीछे रह गए। इस बार यह प्रतिष्ठित सम्मान वेनेजुएला की लोकतंत्र समर्थक कार्यकर्ता मारिया कोरिना माचाडो को दिया गया है। माचाडो को उनके देश में लोकतंत्र और मानवाधिकारों के लिए किए गए संघर्ष के लिए चुना गया।
ट्रंप ने खुद को इस अवॉर्ड का संभावित दावेदार बताया था। उन्होंने भारत-पाकिस्तान के बीच “सीजफायर करवाने” और “रूस-यूक्रेन युद्ध रोकने की कोशिश” जैसे दावे किए थे, लेकिन नोबेल समिति ने इन कोशिशों को खोखला करार दिया।
नोबेल समिति का सख्त संदेश
ओस्लो में आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेंस में नोबेल समिति के अध्यक्ष जोर्गेन वाटने फ्राइडनेस ने बताया कि समिति ने फैसला पूरी निष्पक्षता और नोबेल की मूल भावना के आधार पर लिया है। उन्होंने कहा,
हर साल हमें हजारों नामांकन मिलते हैं, जिनमें कई नेता खुद को शांति का प्रतीक बताने की कोशिश करते हैं। लेकिन यह पुरस्कार किसी प्रचार या राजनीतिक अभियान से तय नहीं होता। हम वही चुनते हैं जो वास्तव में साहस और सच्चाई के रास्ते पर चलता है।
फ्राइडनेस ने यह भी कहा कि समिति “सत्ता से नहीं, समर्पण से प्रभावित होती है।” यह बयान अप्रत्यक्ष रूप से ट्रंप जैसे नेताओं की महत्वाकांक्षा पर टिप्पणी माना जा रहा है।
माचाडो की कहानी
मारिया कोरिना माचाडो वेनेजुएला में लोकतंत्र बहाली के आंदोलन का चेहरा रही हैं। उन्होंने सत्तावादी शासन के खिलाफ आवाज उठाई, जेल, धमकियों और निर्वासन जैसी परिस्थितियों का सामना किया, फिर भी संघर्ष जारी रखा। समिति ने उन्हें “आशा और प्रतिरोध की प्रतीक” बताया है।
माचाडो ने पुरस्कार मिलने के बाद कहा,
यह सम्मान मेरे लिए नहीं, बल्कि उन सभी वेनेजुएलावासियों के लिए है जो बिना आवाज़ के भी लड़ रहे हैं।
पिछले साल का विजेता
पिछले वर्ष नोबेल शांति पुरस्कार जापान के निहोन हिडांक्यो संगठन को मिला था, जिसने हिरोशिमा और नागासाकी की त्रासदी के बाद परमाणु हथियारों के खिलाफ अभियान चलाया था।
इस बार माचाडो को चुनकर समिति ने साफ संदेश दिया है,
शांति केवल युद्ध रोकने से नहीं आती, बल्कि उस अन्याय के खिलाफ खड़े होने से आती है जो लोगों की आज़ादी छीनता है।